Monday, 11 May 2015

खुशियाँ खरीदने लगा हूँ

खुशियाँ, खरीदने जब से लगा हूँ,
जिंदगी मंहगी हो गयी है।

वर्ना जो शुकून.....

पेड़ की छाँव और
चारपाई की नींद में आता था....

लस्सी के गिलास और
मिस्सी रोटी में आता था....

चौदह इंच की टीवी और
चित्रहार, रंगोली में आता था....

माँ के दुलार और
बहिन के प्यार में आता था....

आजकल,
आता ही नहीं।
पता नहीं क्यूँ?
मैं ....
बाजार में भटकता रहता हूँ!!!

---किशन सर्वप्रिय 

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