Tuesday 26 June 2018

हर बार उलझ जाती हैं, आँखें मेरी

हर बार उलझ जाती हैं ,
आँखें मेरी।

पता नही, क्यों?
वो मुस्कुराती है
पलके झुकाती है
शरमाती है।।
अपना पता
बताये बगैर ही
चली जाती है।।

और फिर,
हर रोज की तरह
उस वीरान स्टेशन के,
सुनसान प्लेटफार्म पर
छोटे से पेड़ के नीचे
उसको तलाशती 
नजर आती हैं 
आँखें मेरी।

पता नही, क्यों?
हर बार उलझ जाती हैं,
आँखें मेरी।।

--किशन सर्वप्रिय

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हर बार उलझ जाती हैं , आँखें मेरी। पता नही, क्यों? वो मुस्कुराती है पलके झुकाती है शरमाती है।। अपना पता बताये बगैर ही चली जाती है।। और फिर,...