ये पंक्तियाँ, मुझे तब दोहराने का मन करता है। जब एक सेवा निवृत्त व्यक्ति कहता है की, मैंने, अपने सेवा काल में अपनों से, अपने आप से और समाज से दूरियाँ बना ली थी। आज, जब मैं सेवा निवृत्त हो चुका हूँ तो, घर का आँगन भी, तो कॉलोनी का बगीचा भी; रेल का सफर भी, तो जिंदगी की डगर भी मुझे अकेले चलना पड़ता है। मैं, अब अपनों को अपनाना चाहता हूँ, पर किसी को मेरे लिए समय ही कहाँ।
सुन, तेरा रास्ता वहीँ से गुजरता है, जिससे मैं गुजर चुका हूँ। ये भी बता देता हूँ, आगे बहुत मोड़ आयेंगे। अभी तक जो, तू पगडण्डियाँ पकड़ता आया है, उसको छोड़ दे। जब मौका मिला है, सही रास्ते जाने का, तो एक लकीर बना और सबको उस पर ला। सच कहता हूँ कल तू मुस्कुराता मिलेगा, अपनों की मुस्कुराहट पर। वरना, हँस भी नही पायेगा, अनंत के एकांत में।
जो दुनिया देखी थी,
बुरी लगती थी।
पर दुनिया तो,
मुझसे बनती थी।
जब मैंने…...... जब मैंने...
अपने आप को बदल दिया।
तो दुनिया बदल गयी।
जरुरत
खुद को बदलने की थी,
कुछ करने की थी।
पर मैं पड़ौसी बदलता रहा।
सार समझ में तब आया,
जब खुद को.………
मेले में.……………
खड़ा अकेला पाया।
--- किशन सर्वप्रिय
बुरी लगती थी।
पर दुनिया तो,
मुझसे बनती थी।
जब मैंने…...... जब मैंने...
अपने आप को बदल दिया।
तो दुनिया बदल गयी।
जरुरत
खुद को बदलने की थी,
कुछ करने की थी।
पर मैं पड़ौसी बदलता रहा।
सार समझ में तब आया,
जब खुद को.………
मेले में.……………
खड़ा अकेला पाया।
--- किशन सर्वप्रिय
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