किसी की स्कूल में
गणित कैसी भी रही हो,
जिंदगी सब सिखा देती है।
यहाँ तक की,
बचपन की फिलॉसफी भुला देती है।
जो मैं पाठ
पढ़ाया करता था,
जिसकी वकालत
किया करता था,
आज सब
झूंठा झूंठा लगता है,
अब तो मन भी
दोहरे चरित्र पर हँसता है।
जो मैं कहता हूँ ,
वो बिल्कुल भी नही करता हूँ।
और जो करता हूँ,
वो कहने से डरता हूँ।
मेरा मन,
मन ही मन मरता है।
पता नही क्यों,
कहने से डरता है।
जो मंजिल थी,
पता नही कहाँ रह गयी,
कब रास्ता भटक गयी,
अब तो सब दूर दूर लगता है।
मेरा मन,
मन की बातों से ही डरता है।
कहता कुछ और,
कुछ और ही करता है।
मेरे मन की
विचित्र स्थिति है,
जिंदगी खुद भी
मेरे मन पर हंसती है।
पर सोचता हूँ,
शायद सबकी जिंदगी
ऐसे ही गुजरती है।
---किशन सर्वप्रिय
गणित कैसी भी रही हो,
जिंदगी सब सिखा देती है।
यहाँ तक की,
बचपन की फिलॉसफी भुला देती है।
जो मैं पाठ
पढ़ाया करता था,
जिसकी वकालत
किया करता था,
आज सब
झूंठा झूंठा लगता है,
अब तो मन भी
दोहरे चरित्र पर हँसता है।
जो मैं कहता हूँ ,
वो बिल्कुल भी नही करता हूँ।
और जो करता हूँ,
वो कहने से डरता हूँ।
मेरा मन,
मन ही मन मरता है।
पता नही क्यों,
कहने से डरता है।
जो मंजिल थी,
पता नही कहाँ रह गयी,
कब रास्ता भटक गयी,
अब तो सब दूर दूर लगता है।
मेरा मन,
मन की बातों से ही डरता है।
कहता कुछ और,
कुछ और ही करता है।
मेरे मन की
विचित्र स्थिति है,
जिंदगी खुद भी
मेरे मन पर हंसती है।
पर सोचता हूँ,
शायद सबकी जिंदगी
ऐसे ही गुजरती है।
---किशन सर्वप्रिय
No comments:
Post a Comment