Wednesday 12 March 2014

अफ़सोश होता है


अफ़सोश होता है ऐसा खेल देखकर, जिसमें हमेशा सिर्फ़ एक ही पक्ष की हार होती है| खेल ऐसा जिसका परिणाम पहले से घोषित है-"जनता की हार", खिलाड़ी स्थायी हैं-"अपराधी,परिवारवादी, व जातिवादी"| खेल का विजेता या तो संप्रदायिक होगा या युवराज| लेकिन निर्मम हत्या, देश की जनता की ही होगी|
प्रधानमंत्री का पद, सरकार का पर्यायवाची बन गया है| सरकार किसकी बनेगी? कौन बनाएगा? ये तो पता नही है, लेकिन प्रधानमंत्री कौन होगा? जगजाहिर है| दुख होता है यह सोच कर कि चुनाव सिर्फ़ प्रधानमंत्री के नाम के लिए लड़ा जा रहा है या देश के विकाश के लिए; विरोधी की कमियों को उजागर करने के लिए या अपनी नीतियों के प्रचार के लिए? किसी का भी भाषण सुनलें- खुद पर कम, विरोधी पर ज़्यादा केंद्रित होता है|
यूँ तो जनता जागरूक है, तार्किक है| लेकिन इन मदारियों के खेल में भ्रमित हो हि जाती है| अंत तक निर्णय नही कर पाती है कि- क्या उस खिलाड़ी का समर्थन करे जो किसी का बेटा है? या उसका जो सिर्फ़ एक राज्य का मुखिया है| एक को राजनीति की समझ नही है तो दूसरे को देश-दुनिया की| जनता बेचारी करे तो करे क्या? अंधेरे में रास्ते तो गुम हो ही जाते है|
जनता को फूल के पत्तों की तरह बिखेरा हुआ है| विकास का ख्याली पुलाव पकाया जा रहा है| डर लगता है जनता का यह दिवा स्वप्न देख कर, जिसमें सिर्फ़ वादे-ही-वादे हैं| मौंके-पे-मौंके, तारीख-पे-तारीख देने के बाद भी जनता-दरबार का फ़ैसला नही आ रहा है|

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हर बार उलझ जाती हैं, आँखें मेरी

हर बार उलझ जाती हैं , आँखें मेरी। पता नही, क्यों? वो मुस्कुराती है पलके झुकाती है शरमाती है।। अपना पता बताये बगैर ही चली जाती है।। और फिर,...