Friday 21 March 2014

70% का दुःख

 बादलों को देखा तो
सपने हजारों थे,
खेत को देखा तो 
गम हजारों थे,
नेता को देखा तो
वादे हजारों थे, 
बैंक को देखा तो 
कर्ज हज़ारों थे,
पडोसी को देखा तो 
झगड़े हजारों थे,
काया को देखा तो 
रोग हजारों  थे। 

बस नहीं  था तो 
बादलों  में पानी 
खेत में फसल 
कन्धों पे हल 
घर में अनाज,
बस नहीं  था तो 
परिवार का सुख 
काया पे चमक, 
बस नहीं  था तो 
तन पर कपडे 
शिर पे छाँव 
पेट में अन्न 
बैंक में धन 
जीने का मन। 

कठिन हो गया था 
बादल का बरसना 
खेत का लहलाना
अन्न का उगना 
पेट का भरना,
कठिन हो गया था 
पडोसी का साथ आना 
परिवार का सुख पाना 
नेता का सही चुना जाना,
कठिन हो गया था 
बैंक का कर्ज चुकाना 
बहिन कि डोली सजाना 
बापूजी कि अर्थी बनाना 
नुक्ता का पंडित जिमाना, 

अब ना रहा था 
जीने का कोई बहाना 
लेकिन आसान ना था....  
मर पाना। 
जहर 
कि गोली सस्ती न थी 
फांसी 
 के लिए रस्सी न थी 
कुंए
 के पानी में गहराई न थी 
बिल्डिंग 
कि ऊँची हाइट न थी 
रेल 
कि पटरी बिछाई न थी 
बिजली 
कभी देखी न थी 
केरोसिन 
तो दीपक में भी न थी 


हमारे मरने कि कीमत भी 
हमें जीने पर मजबूर कर रही थी। 


---किशन सर्वप्रिय 

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