Sunday 14 December 2014

इश्क़ का आलम

जब तुम जा रहे थे
हम मुस्कुरा रहे थे
तुम्हारे जाने का गम भुला रहे थे
दिल को दारू पिला रहे थे।।

दिल-ए-गुलज़ार खिला हुआ था
जब साथ उसका मिला हुआ था।
आज दिल के टुकड़े किये जा रहा हूँ
आंसू-ए-गम पिये जा रहा हूँ।।

अब इश्क़ का आलम ऐसा, कि
मोहब्बत-ए-जुर्म किये जा रहा हूँ
दवा-ए-दारू पिये जा रहा हूँ।।

महफ़िल में उसके, मैं गाये जा रहा हूँ
दरिया में अश्रु, बहाये जा रहा हूँ।
गम जो तूने दिये, तुझे सुनाये जा रहा हूँ।

       ---किशन सर्वप्रिय 

तेरे लिए

खत लिखते लिखते,
लिखना सीख गया मैं
तेरा नाम तो याद रहा,
अपना भूल गया मैं ।।

तेरी बातों पे हँसते हँसते,
हँसना सीख गया मैं
तेरा हँसना तो याद रहा,
अपना भूल गया मैं ।।

तेरा पीछा करते करते,
पीछे रह गया मैं
तेरा रास्ता तो याद रहा,
अपना भूल गया मैं ।।

यूँ गम पीते पीते,
पीना सीख गया मैं
तेरा जीना तो याद रहा,
अपना भूल गया मैं ।।

    ---किशन सर्वप्रिय 

Wednesday 3 December 2014

जीवन सार (1)

मैं उस मंजिल
          की ओर निकला।
जो बहुत दूर लगती थी।
कांटों से भरी लगती थी।
आज छोटी लगती है।।

मैं उस चाहत
         को पाने निकला।
जो जिंदगी लगती थी।
दिल की धड़कन लगती थी।
आज बेगानी लगती है।।

जब मंजिल मिली,
                  मंजिल बदल गयी।
जब चाहत मिली,
                 चाहत बदल गयी।
ये समझते समझते,
                जिंदगी निकल गयी।।

   ---किशन सर्वप्रिय 

Tuesday 21 October 2014

मेरा घर, मेरा

एक बन्दर था
चंचल नटखट था 
उछल कूद किया करता था
शहर के किनारे
पेड़ पर रहा करता था
पेड़ की हर डाली,
डाली का हर पत्ता,
उसने खाया था
या तोडा था
पेड़ पर किसी को
न टिकने दिया था
हर रोज आधे दिन
गायब रहा करता था
न जाने क्या
किया करता था।

एक दिन शहर से
लोट रहा था,
तो घर को
खोज रहा था।
घर, पत्ते टहनियों में
बिखरा पड़ा था
परिवार उसका
रोते खड़ा था
चने के दाने,
केला का छिलका,
पानी का घड़ा था
सब जमीन पर पड़ा था।

यह देख, उसे कुछ
समझ नहीं आया
तो माँ ने रोते हुए बताया
न जाने किसकी
नजर लगी थी
सुबह यहाँ
बहुत सारी मशीनें खड़ी थी। 
तुम्हारे बापूजी की डाली
जो सबसे बड़ी थी
पल में नीचे पड़ी थी
जब तक मैं
उनको उठा पाती
दूसरी डाली
नीचे आ जाती।
देखो न
ये चने के दाने
जो मिलकर कमाये थे
ये पानी का घड़ा
जो तुम कल ही लाये थे।

यह सुनकर
बगल में खड़ा
छोटा बन्दर भी रो पड़ा
हे भाई, ये हमने
किसकी कीमत चुकाई
क्यों किसी ने
मेरे घर में आग लगाई
तुम तो कहते थे
शहर में बड़े अच्छे
लोग रहते हैं
पढ़े लिखे होते हैं

बन्दर चुपचाप सुन रहा था
चारों तरफ कृदंत मच रहा था
इतने में जंगल का मुखिया
शेर भी वहां आया
और जोर से गिड़गिड़ाया
मैं किसी को नहीं बचा पाया
मैं किसी को नहीं बचा पाया।
बन्दर बोला-
चुप हो जाओ
कोर्ट जाओ
मुक़दमा दर्ज कराओ।

मुकदमे की तारीख आयी
जज ने आवाज लगायी
शुरू हो कार्यवाही
बन्दर ने मुँह खोला
और कुछ बोला
बीच में जज ने टोका
और बोलने से रोका।
अरे बन्दर-
 यहाँ क़ानूनी बातें होंगी
तुम्हें दलीलें देनी होंगी
क्या तुम दे पाओगे
नहीं तो मुकदमा हार जाओगे।

बन्दर बोला-
मैं कानून जानता हूँ
मुजरिम पहचानता हूँ
चलो, एक बात बताता हूँ।
गाँव से शहर का
मुख्य रास्ता जोड़ना है
जिसके बीच आ रहा
तुम्हारा घर तोडना है
चलो तोड़ देते हैं
और कह देते हैं
यह जरुरी था
पर क्या कानूनन था।

अगर पेड़ काटना है
और जरुरी है, तो
पहले पेड़ लगाओ
घर बनवाओ
फिर मशीन चलाओ।
जज को बात समझ आई
मशीन को सजा सुनाई
जुर्माना तुमको भरना होगा
पहले घर बनाना होगा
फिर पेड़ लगाना होगा। 

-किशन सर्वप्रिय

बहरी सरकार

कुछ न सहेंगे
चुप न रहेंगे
सुन ओ बहरी सरकार

अब लाल मेरे बोलेंगे
निंदिया तेरी तोड़ेंगे
सुन ओ बहरी सरकार

मेरा क्या नाम
तेरा क्या काम
तू जान ले
बात मेरी मान ले
सुन ओ बहरी सरकार

बहुत हो चुकी परीक्षा
क्या है तेरी इच्छा
अब बता दे, वरना
तेरा भी नाम मिट जायेगा ।

---किशन सर्वप्रिय 

Friday 3 October 2014

तेरी याद

वो गली का पेड़,
जो आज भी झुका नहीं ।
वो गली का गड्ढा,
जो आज भी भरा नहीं।
हमें तेरी याद दिलाते हैं।

वो घर की छत, 
जो मेरे सामने थी। 
वो स्कूल का कक्ष, 
जो ख़ाली रहता था। 
हमें तेरी याद दिलाते हैं। 

वो कॅाफी का कप,
जो तुमने छुआ था। 
वो लाल सा फूल, 
जो तुमने दिया था।
हमें तेरी याद दिलाते हैं। 

वो पहला पत्र, 
जो तुमने लिखा था। 
वो पहला वाक्य, 
जो मैंने सुना था।
हमें तेरी याद दिलाते हैं। 

वो किताब का पन्ना, 
जो तस्वीर तेरी रखता था। 
वो स्याही का पैन, 
जो ख़त लिखा करता था। 
हमें तेरी याद दिलाते हैं। 

वो पानी पुरी, 
जो तीखी थी। 
वो प्याज़ कचौड़ी,
जो मीठी थी। 
हमें तेरी याद दिलाते हैं। 

वो घड़ी,
जो तेरा इंतज़ार करती थी।
वो बस, 
जो तेरे घर से गुज़रती थी।
हमें तेरी याद दिलाते हैं।

वो बरसात, 
जो हमें भिगो गई। 
वो लहर, 
जो हमें डुबो गई। 
हमें तेरी याद दिलाते हैं। 

वो आँधी, 
जो तुम्हें गुमशुदा कर गई।
वो काली रात,
जो हमें अलग कर गई। 
हमें तेरी याद दिलाते हैं। 

वो मिट्टी का घर,
जो उस रात बह गया था। 
वो रिश्तों का बंधन,
जो उस रात टूट गया था। 
हमें तेरी याद दिलाते हैं। 

आज वो,
जो तुम्हारी याद दिलाते हैं। 
हमें अपने पास पाते हैं।
हमारा मन बहलाते हैं।
और हम 
बस यूँ ही जिये जाते हैं।

---किशन सर्वप्रिय 

Sunday 28 September 2014

ये जिंदगी

मुझे याद है वो दिन,
जब घोड़ी मचल रही थी,
दोस्त नाच रहे थे,
हम शाही सवारी कर  रहे थे।

मुझे याद है वो दिन,
जब म्यूजिक बज रहा था,
अग्नि जल रही थी,
हम सात चक्कर ले रहे थे। 

मुझे याद है वो दिन,
जब घूँघट लम्बा था,
आवाज़ धीमी थी,
हम रंगीन सपने बुन रहे थे।

मुझे याद है वो दिन,
जब कुछ बदल रहा था,
आँगन में फूल खिल रहा था,
हम खुशी से झूम रहे थे।

आज मैं लिख रहा हूँ,
वो सुन रही है।
एक पढ़ रहा है,
एक खेल रही है।
दुनिया.... कुछ पूरी पूरी लग रही है।

---किशन सर्वप्रिय 

Saturday 13 September 2014

काश, काश न होता

काश, काश न होता ।
तो मैं, मैं न होता ।
तू, तू न होता ।
बस इन्सान, इन्सान होता ।।

काश, काश न होता ।
तो मज़हब, मज़हबी न होता ।
मन्दिर, मश्जिद न होता ।
बस ईश्वर, ईश्वर होता ।

काश, काश न होता ।
तो सपना, सपना न होता ।
सिर्फ़ तेरा, तेरा न होता ।
मेरा सपना भी अपना होता ।।

काश, काश न होता ।
तो ये दिल,दिल न होता ।
ये धड़कन, धडकन न होती ।
दिल धडकाने वाला भी कोई होता ।।

काश, काश न होता ।
तो ये तारे, ये सितारे यूँ न जगमगाते ।
इस दुनिया में हम यूँ न गुम हो जाते ।
हम भी अपना नाम चाँद पर लिख आते ।।

Monday 1 September 2014

तेरी रूश्वाई

तेरी रूश्वाई से तन्हा दिल,
अकेला भटकता रहा।
जुर्म हमदर्द के, तन्हा सहता रहा।
हमसे इतनी बेरुखी किस लिए,
दर्द-ए-सितम हमने भी तो सहे।

दिल-ए-दर्द काश आँखों से कम होता,
तो आँखें नम, हम भी कर लेते।
जख्म-ए-दिल ख़ुशी से सह लेते।

काश दिल-ए-जख्मों पर मरहम तुम लगाती।
कभी तो मेरे टूटे दिल को समझाती।
शायद हमारी तुम्हारी भी कहानी बन पाती।

शायद मेरा प्यार ही झूठा था,
जो रात-ए-बेचैनी तुम पढ़ न पायी।
टूटते दिल की आवाज सुन न पायी।
डूब गया ये दिल,
उन बरसात की टिप-टिप बूंदों में
जो ठीक से बरस भी न पायी।

जब तेरे आँसू मेरे जनाजे पर निकलेंगे,
तो उनकी कोई कीमत न होगी।
फिर भी हम कोशिश करेंगे लौट आने की,
पर किसे पता, ख़ुदा-ए-मर्जी क्या होगी। …

             ---किशन सर्वप्रिय 

Wednesday 20 August 2014

बचपन की याद

मुंह का पहला निबाला
जो माँ ने खिलाया 
कुछ अलग स्वाद आया 
फिर जो हमने मुंह बनाया 
आज याद आता है 
कभी हँसाता है,
तो कभी रुलाता है।

जिसने हर पल मुझे रुलाया

क्या करूँ इबादत उसकी,
जिसने मुझे बनाया।
या करूँ इबादत उसकी,
जिसने जीना मुझे सिखाया।
पर क्या करूँ मैं तेरा,
जिसने हर पल मुझे रुलाया।

अबला बेचारी

यारों मैं जाग रहा हूँ, तुम सो रहे हो।
यारों मैं रो रहा हूँ, तुम हँस रहे हो।
आज सीख एक तुमको लेनी होगी
ऐसी गलती तुमको न करनी होगी।

Thursday 14 August 2014

बेबस भगवान!

कोई तो तेरी माँ होगी
कोई तो तेरी बेटी होगी
जिसकी इज्जत चीर-चीर हुई होगी
कोई तो रिश्ता होगा,
जिसको तूने बनाया होगा।
अगर तू रिश्ते बचा नहीं सकता
तो तेरे होने का, क्या फायदा ?

Friday 8 August 2014

Truth of Dreaming in Darkness

सुबह जब पलकों से नींद उडी,
पहली नजर धर्मपत्नी पर पड़ी।
हाथ में चाय लिए सामने थी खड़ी।
प्राणनाथ जरा चाय पी लीजिए,
फिर उठके नहा लीजिए।

Tuesday 17 June 2014

मैं तेरा होना चाहता हूँ

मैं तुझसे मिलना चाहता हूँ
मैं तुझमें खोना चाहता हूँ
मैं तेरा होना चाहता हूँ।

Tuesday 10 June 2014

मैं इंसान

मैं इंसान
विना पहचान
दुनिया से अंजान
निकला हूँ।

Monday 26 May 2014

रिश्तों की चरखी

न जाने जिंदगी में देखे कितने मेले हैं
हम कल भी अकेले थे, आज भी अकेले हैं।

रिश्तों की चाह में, जिंदगी की राह में
जीने की आशा में, अंत की निराशा में
न जाने कौन-कौनसे खेल हमने खेले हैं
हम कल भी अकेले थे, आज भी अकेले हैं।

कभी माँ के दुलार के लिए
तो कभी पा के प्यार के लिए
हम तरसे हैं, तो अश्रु बरसे हैं
हमने दोस्तों के विना ही कंचे खेले हैं
हम कल भी अकेले थे, आज भी अकेले हैं।

पल का पड़ाव, समय का झुकाव
हमारे साथ कभी न था
कभी हम समय से पीछे थे
तो कभी समय नींद में था
समय के थपेड़े हमने भी झेले हैं
हम कल भी अकेले थे, आज भी अकेले हैं।

कल तलक तन्हाई थी,
फिर बजी शहनाई,
आज फिर क्यों रूश्वाई है
अनन्त में घनघोर घटा छाई है
गुरु गुड रह गए, हम उस स्कूल के चेले हैं
हम कल भी अकेले थे, आज भी अकेले हैं।

न जाने जिंदगी में देखे कितने मेले हैं
हम कल भी अकेले थे, आज भी अकेले हैं।

तन्हाई से मिलन, मिलन से तन्हाई अच्छी होती है
सच्चे रिश्तों की डोर पतली और कच्ची होती है,
ढील नाप तोल के देना यारो, रिश्तों की चरखी छोटी होती है।

                                    -किशन सर्वप्रिय

Wednesday 7 May 2014

बचपन से जवानी

बचपन में,
मैं चलता था, गिरता था
फिर चलता था, फ़िर गिरता था
कभी न थकता था, कभी न रुकता था।
न गिरने का डर था, न लगने का भय
न असफलता की चिंता थी, न सफलता का गुरूर।

बचपन में,
मैं हँसता था, मैं रोता था
लेकिन दुखी कभी न होता था।
मैं लड़ता था, झगड़ता था
पर दोस्त सभी का होता था।
मैं मन की करता था, दिल की सुनता था
पर ध्यान सभी की सहजता का रखता था।

बचपन में,
बूढी दादी का प्यार,
माँ  का दुलार,
अच्छा लगता था।
आँगन की मिट्टी में खेलना,
पापा की ऊँगली पकड़ चलना,
अच्छा लगता था।

खेल खेल में
बचपन से जवानी आ गयी,
खेल बदला देख
जान आफत में आ गयी।
हमें देख वो छत पर खड़ी मुस्कुरा गयी,
उसकी मुस्कुराहट मन को भा गयी।
इतने में उसकी मम्मी आ गयी,
जाते हुए भी वो अपना हाथ हिला गयी।

न जाने क्यूं ?
पढाई, पार्टी के बीच में वो आ गयी,
दिल, दिमाग में खलबली मचा गयी,
कॉन्टैक्ट लिस्ट में भी शामिल हो गयी,
अबतो दिन रात वो बातों पर आ गयी,
बातों ही बातों में मोबाइल का बिल बढ़ा गयी,
पॉकेट मनी बर्गर कॉफी में उड़ा गयी,
मूवी शॉपिंग के लिये तो बात उधारी पर आ गयी,
उधारी इतनी की, पलंग किताब भी बिकवा गयी,
अब उधार न मिलने की नौबत आ गयी,
साथ में वसूली की धमकी भी सता गयी।

हमारी ये खस्ता हालत
उसकी दोस्ती किसी और से करा गयी।
अब वो किसी और के मन को भा गयी
अब बेचारे किसी और की बारी आ गयी।

लेकिन उसकी जुदाई, हमें दारू की लत लगा गयी
एक गिलास दारू से, उससे नफ़रत हुई
दो गिलास दारू से, उससे और नफ़रत हुई  
लेकिन तीन गिलास दारू, दिमाग को चढ गयी 
और जिंदगी का डिरेलमेंट निश्चित कर गयी।  

परीक्षा की अंकतालिका, उम्मीदों पर खरी उतरी 
सूखे का अनुमान था, अकाल ले आयी। 
न अंक तालिका में नम्बर थे, न हमारी जेब में नौकरी 
हम थे, खाली दारू की बोतल थी, और थी हमारी बेरोजगारी। 

न जाने क्यूँ ? 
जिंदगी इस मोड़ पर ले आई, 
जहाँ चारों ओर मायूसी थी छाई। 
अचानक बचपन की याद आयी 
जिसने गिरके चलना,कोशिश करते रहना,
सीख थी सिखायी। 
इससे आशा की एक किरण जगमगाई 
एक बार फिर बचपन ने उम्मीद जगाई 
हमने फ़िर कोशिश करने कि कसम खाई। 

बचपन बहुत कुछ सिखाता है, रास्ते दिखाता है, 
जवानी में पैर डगमगाते हैँ, रास्ते मिट जाते हैं,
पर बचपन की सीख, जवानी का अनुभव, ज़िन्दगी बनाता है।  

Wednesday 9 April 2014

क्यूँ सोते हैं

हम पूरी साल सोते हैं।
अब फिर क्यों रोते हैं। 

हमसे अच्छे तो नेता होते हैं
चारा से लेकर, कोयला तक खाते हैं
पुल, तालाब गायब भी करते हैं
फिर भी कपडे सफ़ेद रहते हैं
हम क्यों सोते हैं, क्यों रोते हैं
हमसे अच्छे तो नेता होते हैं

हर बार बड़े बड़े वायदे होते हैं
फिर क्यों बच्चे नंगे रोते हैं
फिर क्यों किसान भूखे सोते हैं
फिर क्यों मजदूर मजबूर होते हैं
क्या इसीलिए बड़े बड़े वायदे करते हैं
हम हर बार रोते हैं, फिर भी सोते हैं

हर बार मतदान होते हैं
हर बार मतदाता होते हैं
कुछ नये, कुछ पुराने होते हैं
पर नेता नहीं बदलते हैं
उनकी भूख ज्यादा होती है,
तो दांत ताजा होते हैं
क्या ऐसे ही मतदाता होते हैं,
जो मत दान करते हैं
हम दान कर सोते हैं, फिर रोते हैं
हमसे अच्छे तो नेता होते हैं

हम भला इससे क्या खोते हैं
हम तो आराम से सोते हैं
और हमारे साथ सभी तो सोते हैं
ठीक है, हमसे अच्छे नेता होते हैं
आखिर वो नेता भी तो होते हैं
हमतो जैसे पैदा हुए थे, वैसे ही मरते हैं

कवि जी कुछ भी करलो, हम ऐसे ही होते हैं।    
कितना भी जोर लगालो, हम ऐसे ही रहते हैं।।   

---किशन सर्वप्रिय 

Tuesday 8 April 2014

दान कर मत दान

मतदान से डरकर जिंदगी पार नहीं होती।
संसद वालों की कभी हार नहीं होती।।

संसद सदन में कभी न चलती है।
घोटालों में सौ बार फिसलती है।
युवा जोश रगों में साहस भरता है।
बेटा का बेटा, उसका बेटा भी न अखरता है।
बेईमान संसद हर बार नहीं होती।
संसद वालों की कभी हार नहीं होती।।

हल फाबड़ा बंजर में किसान चलाता है।
लेकिन हर बार, रह खाली हाथ जाता है।
मिलता न सहज ही अन्न कम पानी में।
बढ़ता दूना आक्रोश इसी हैरानी में।
फिर भी घोटालों कि भरमार किस बार नहीं होती।
संसद वालों की कभी हार नहीं होती।।

संसद, सरकार एक चुनौती है स्वीकार करो।
क्या कमी रह गयी, अबतो बहिष्कार करो।
जब तक अपराधी हैं, वोट न डालो तुम।
'नोटा' दबाओ, मतदान से न भागो तुम।
कुछ किये विना ही जनता जिम्मेदार नहीं होती।
संसद वालों की कभी हार नहीं होती।।  

                        --- किशन सर्वप्रिय 

Friday 28 March 2014

हम - तुम

हमने देखा, तुमने देखा 
हम दोनों ने देखा 
हम भी देखते रहे, तुम भी देखते रहे 
हम दोनों देखते रहे 
हमने कहा, तुमने कहा 
हम दोनों ने कहा 
मुझे पसन्द है, मुझे पसंद है 

प्यारी सी मुस्कान चेहरे पर थी 
मानो उसी की तलाश थी 
लगा आज तो मिल ही जायेगी 
हमने पूछा, तुमने पूछा  
क्या लोगे?
दुकानदार बोला- साहब जी, मैड़म जी
ये पेन्टिंग तो हमारे पास एक ही होगी 
हमने देखा, तुमने देखा 
दोनों ने मुड़कर देखा
दुकानदार फिर बोला
आपस में फैसला करलो 
यही अच्छा होगा जी 

हमने कहा, तुमने कहा 
हम दोनों ने कहा 
पहले आपने देखा, पहले आपने देखा 
पहले आपने कहा, पहले आपने कहा 
पसंद तो हमको भी है, पसंद तो तुमको भी है
पर आप ले लीजिये जी, पर आप ले लीजिये जी

---किशन सर्वप्रिय 

Thursday 27 March 2014

अब, फिर कब

पिछली बार 
'कांग्रेस' का भ्रस्टाचार,
अबकी बार 
'मोदी' की सरकार,
देखा बार-बार 
'आप' का अहंकार,
हर बार 
बहुत हुआ अत्याचार,

कब करेगी 
जनता प्रहार?
कब भरेगी
जनता हुंकार?
कब लगेगा 
जनता दरबार?
कब होंगे 
सपने साकार?

क्यूँ है
जनता लाचार?
क्यूँ है 
जनता बीमार?
क्यूँ है
घोटालों का अंबार
क्यूँ हैं 
समस्याएं हजार?
क्या सन 57 में 
क्रांति लेगी आकार?

कर ही लो
इस बार, दो चार, 
इस बार नहीं
तो किस बार?

नमो-नमो सब करें, जन-जन करे न कोय।
इलेक्शन आते ही, नेता टप -टप आंसू रोय। 

 पाँच साल खूब लूटा, इनसे बचा न कोय 
इलेक्शन आते ही, जनता मतदाता होय। 

                                                               ---किशन सर्वप्रिय 



आज और कल

आज 

फूल ने कहा भँवरे से, कब तक मँडराओगे। 
मुरझाने के बाद, कल तो उड़ जाओगे। 

कुंए ने कहा प्यासे से, कब तक बहाओगे। 
सूखने के बाद, घाट तो छोड़ जाओगे।

छाँव ने कहा राहगीर से, कब तक ठहरोगे। 
धूप आने के बाद, तुम तो चले जाओगे।

प्यार ने कहा दोस्ती से, कब तक निभाओगे।
बरसात जाने के बाद, वेबफ़ा हो जाओगे। 

मैं ने कहा नेता से, कब तक बनाओगे। 
चुनाव के बाद, सारा खून चूंस जाओगे।

लेकिन कुछ दिन बाद ...... 

कल 

धूप ने कहा राहगीर से, कब तक भागोगे। 
प्रदूषण होने के बाद , धूप से भी जाओगे ।

जनता ने कहा नेता से, कब तक सुलाओगे। 
एक दिन क्रांति के बाद, सब मिट जाओगे। 

नदी ने कहा झरने से, कब तक इतराओगे। 
समतल आने के बाद, बस पानी रह जाओगे। 

चांदनी ने कहा सितारों से, कब तक जगमगाओगे। 
चाँद निकलने के बाद, सब गायब हो जाओगे।

बिजली ने कहा अम्बानी से, कब तक एसी चलाओगे। 
वायुमण्डल समाप्ति के बाद, जान से भी जाओगे।  


                             ---किशन सर्वप्रिय 

Monday 24 March 2014

चाँदनी रात हो

हाथों में हाथ हो
सितारों का साथ हो
चाँदनी रात हो
फिर क्या बात हो।

लम्बे काले बाल हों
गोरे गोरे गाल हों
लिपस्टिक लाल हो
मदमस्त चाल हो
फिर क्या हाल हो।

बाली से सजे कान हों
चहेरे पर मुस्कान हो
तू ही मेरी जान हो
तू ही मेरी पहचान हो।

दिन कि तकरार हो
रात का प्यार हो
फिर मिलने का इकरार हो
बस तुम्हारा ही इन्तजार हो।

हथेली तुम्हारी हो
कलम हमारी हो
अल्फाज तुम्हारे हों
राइटिंग हमारी हो
फिर देखो क्या शायरी हो।  

जहर पीना मुस्किल न हो
अगर स्ट्रा तुम्हारी हो,
फांसी का भी दर्द न हो
अगर चुनरी तुम्हारी हो। 

   ---किशन सर्वप्रिय 

Friday 21 March 2014

चींटी, मच्छर की लड़ाई

चींटी, मच्छर में हुई लड़ाई 
माननीय जज थे कबीर भाई 
खूब सारी भीड़ देखने को आई 
चींटी, मच्छर ने पूरी दम लगाई 
कभी चींटी ऊपर आई 
तो कभी मच्छर ने पछाड़ लगाई 
फैसला करने में हुई कठिनाई।

कबीर भाई को एक बात समझ में आई
उन्होंने भी चालाकी दिखाई
काटने की कम्पटीशन थी करवाई
चींटी ने मच्छर, मच्छर ने चींटी काट खाई
बेहोश दोनों को एक घंटे में होश आई
कबीर और मुस्किल में पड़ गए भाई
किसने ज्यादा काटा ये कैसे पता चल पाई
यह बात कबीर के समझ नहीं आई।

कबीर ने काटने की कम्पटीशन फिर करवाई
लेकिन खुद को काटने की कंडीशन लगाई
पहले चींटी के काटने की टर्न आई
चींटी कबीर को जोर से काट खाई
कबीर ने हाथ को मलते हुए फिर हिम्मत दिखाई।

अब मच्छर के काटने की बारी थी आई
मच्छर ने जोरों से डंक गड़ाई
कम से कम दो एम एल खून चूंस गया भाई
इतने में ब्रेक कि चाय थी मंगवाई
कबीर ने मूर्छा कि इच्छा जताई
आने लगी थी बेहोशी कि अंगड़ाई
कबीर को उलटी भी करवाई

हालत बिगड़ते देख आयोजकों ने
चारपाई थी मंगवाई
एम्बुलेंस भी कॉल करवाई,
आते-आते डाक्टर ने
चार-पांच  इंजेक्शन कबीर के लगाई
टेस्ट करने कि पर्ची भी थमाई
थमाते थमाते हालत नाजुक थी बताई
कबीर दर्द से बार-बार कराहि।

जल्दी ही टेस्ट रिपोर्ट आई
कबीर की मुस्किल और थी बढ़ाई
कबीर कि जान आफत में आयी
कबीर कि बीमारी
 डॉक्टरों ने लाईलाज बताई
आयोजक क्या करें भाई
पुलिस भी मौके पर आई
पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज़ कराई।

इतने में रिजल्ट जानने
मच्छर कि माँ भी वहाँ आई
साथ में पुरे गांव को साथ लाई
रिजल्ट न बताने तक
जान कि धमकी थी सुनाई
अब क्या था भाई
डाक्टर ने एक इंजेक्शन लगाई
एक मच्चर ने डंक चुबाई
डाक्टर ने दूसरा इंजेक्शन लगाई 
दूसरे मच्छर ने डंक चुबाई 
डाक्टर ने तीसरी दी दवाई 
तीसरे मच्चर ने घाव में ही डंक गढ़ाई।

पुलिस उस मच्छर को पकड़ नही पाई
किसके कटाने से मौत हुई 
यह बात आज तक पता नहीं चल पाई
अगले महीने कोर्ट में है सौंवी सुनवाई  
इसी बीच चींटी मच्छर के 
शादी की बात भी सुनने में आई
कुछ लोगों ने उसमें मिठाई खाई
तो कुछने फ़ोटो भी खिंचवाई। 


अब क्या ???
कबीर भाई राम राम जपा, पर बचा सका न कोय। 
क्या करें डॉक्टर, जब मच्छर के काटने से मौत होय। 


---किशन सर्वप्रिय 





देखो तमाशा जनता का

एक दिन आया 
इलेक्शन का भूत 
खूब सजा था पोलिंग बूथ 
जनता लड़ रही थी 
नेता जीत रहे थे 
हम तमाशा देख रहे थे।  

एक दिन आया 
इलेक्शन का नतीजा
 मनोरंजन का समय खूब बीता
जनता ताली बजा रही थी 
नेता मिठाई खा रहे थे 
 हम तमाशा देख रहे थे। 

एक दिन आया 
इलेक्शन वादों को पूरा करने का दिन 
नेता ने कहा पहले पैसे तो लूं गिन 
जनता चिल्ला रही थी 
नेता पैसा बना रहे थे 
हम तमाशा देख रहे थे। 

एक दिन आया 
सरकार का हनीमून समय बीता 
विपक्ष ने शिर खूब पीटा 
जनता वहीँ पड़ी रो रही थी 
नेता वीस गुना कमा चुके थे 
हम तमाशा देख रहे थे। 

एक दिन आया 
हमने भी सरकार बनाने कि ठानी 
जनता ने हमारी बात खूब मानी 
अब हमारी दुकान चल गयी 
जनता फिर उल्लू बन गयी 
लो देखो तमाशा जनता का।

---किशन सर्वप्रिय 

70% का दुःख

 बादलों को देखा तो
सपने हजारों थे,
खेत को देखा तो 
गम हजारों थे,
नेता को देखा तो
वादे हजारों थे, 
बैंक को देखा तो 
कर्ज हज़ारों थे,
पडोसी को देखा तो 
झगड़े हजारों थे,
काया को देखा तो 
रोग हजारों  थे। 

बस नहीं  था तो 
बादलों  में पानी 
खेत में फसल 
कन्धों पे हल 
घर में अनाज,
बस नहीं  था तो 
परिवार का सुख 
काया पे चमक, 
बस नहीं  था तो 
तन पर कपडे 
शिर पे छाँव 
पेट में अन्न 
बैंक में धन 
जीने का मन। 

कठिन हो गया था 
बादल का बरसना 
खेत का लहलाना
अन्न का उगना 
पेट का भरना,
कठिन हो गया था 
पडोसी का साथ आना 
परिवार का सुख पाना 
नेता का सही चुना जाना,
कठिन हो गया था 
बैंक का कर्ज चुकाना 
बहिन कि डोली सजाना 
बापूजी कि अर्थी बनाना 
नुक्ता का पंडित जिमाना, 

अब ना रहा था 
जीने का कोई बहाना 
लेकिन आसान ना था....  
मर पाना। 
जहर 
कि गोली सस्ती न थी 
फांसी 
 के लिए रस्सी न थी 
कुंए
 के पानी में गहराई न थी 
बिल्डिंग 
कि ऊँची हाइट न थी 
रेल 
कि पटरी बिछाई न थी 
बिजली 
कभी देखी न थी 
केरोसिन 
तो दीपक में भी न थी 


हमारे मरने कि कीमत भी 
हमें जीने पर मजबूर कर रही थी। 


---किशन सर्वप्रिय 

Thursday 13 March 2014

मैं सिग्नल कहलाता हूँ

मैं पटरी पर रहता हूँ
और हमेशा रहता हूँ 
दशकों से खड़ा हूँ 
और सजग अडा हूँ। 
किसी को लाल,
किसी को पीला,  तो 
किसी को हरा रंग
 दिखाता हूँ। 
यात्रियों कि सुरक्षा,
समय कि शीघ्रता
का बेडा उठाता हूँ। 
मैं सिग्नल कहलाता हूँ। 
मैं सिग्नल कहलाता हूँ। 


मैं पटरी पर रहता हूँ,
और सबसे कम खाता हूँ ,
फिर भी ... 
गाली ज्यादा पाता हूँ,
और सबसे पाता हूँ।
यात्री,जिनको सुरक्षित घर पहुँचाता हूँ,
उनसे भी देरी के लिए खाता हूँ। 
दुर्घटना  से देरी भली,
मालिक जानता  है ,
फिर भी 
गाली रोज सुनाता है। 
बचपन से सिखाया जाता है,
सुरक्षा का रंग लाल होता है,
फिर भी 
लाल रंग की ही सजा पता हूँ। 
मैं कमजोर तो नही,
पर मजबूर हूँ ,
क्योंकि 
लोगों कि जान का पहरेदार हूँ। 
वरना कोई यूँ न सुनाता,
और मैं चुप भी न रहता।
हाँ हाँ मैं चुप रहता हूँ , 
इसीलिए तो 
 मैं सिग्नल कहलाता हूँ। 
मैं सिग्नल कहलाता हूँ। 

                                                                               … किशन सर्वप्रिय  

Wednesday 12 March 2014

तिरंगा ऊँचा

अल्लाह के बन्दे ,
अंधे हैं हम। 
रोजाना चोरी, 
करते हैं हम। 
छोटी-छोटी बातों पे,
झगड़ते हैं हम। 
खास पड़ौसी से,
लड़ते हैं हम।।  

लेकिन 
देश प्रेम,
 रखते हैं हम। 
बलिदान लहू का,
करते हैं हम। 
तिरंगा ऊँचा,
रखते हैं हम। 


--- किशन सर्वप्रिय 

अफ़सोश होता है


अफ़सोश होता है ऐसा खेल देखकर, जिसमें हमेशा सिर्फ़ एक ही पक्ष की हार होती है| खेल ऐसा जिसका परिणाम पहले से घोषित है-"जनता की हार", खिलाड़ी स्थायी हैं-"अपराधी,परिवारवादी, व जातिवादी"| खेल का विजेता या तो संप्रदायिक होगा या युवराज| लेकिन निर्मम हत्या, देश की जनता की ही होगी|
प्रधानमंत्री का पद, सरकार का पर्यायवाची बन गया है| सरकार किसकी बनेगी? कौन बनाएगा? ये तो पता नही है, लेकिन प्रधानमंत्री कौन होगा? जगजाहिर है| दुख होता है यह सोच कर कि चुनाव सिर्फ़ प्रधानमंत्री के नाम के लिए लड़ा जा रहा है या देश के विकाश के लिए; विरोधी की कमियों को उजागर करने के लिए या अपनी नीतियों के प्रचार के लिए? किसी का भी भाषण सुनलें- खुद पर कम, विरोधी पर ज़्यादा केंद्रित होता है|
यूँ तो जनता जागरूक है, तार्किक है| लेकिन इन मदारियों के खेल में भ्रमित हो हि जाती है| अंत तक निर्णय नही कर पाती है कि- क्या उस खिलाड़ी का समर्थन करे जो किसी का बेटा है? या उसका जो सिर्फ़ एक राज्य का मुखिया है| एक को राजनीति की समझ नही है तो दूसरे को देश-दुनिया की| जनता बेचारी करे तो करे क्या? अंधेरे में रास्ते तो गुम हो ही जाते है|
जनता को फूल के पत्तों की तरह बिखेरा हुआ है| विकास का ख्याली पुलाव पकाया जा रहा है| डर लगता है जनता का यह दिवा स्वप्न देख कर, जिसमें सिर्फ़ वादे-ही-वादे हैं| मौंके-पे-मौंके, तारीख-पे-तारीख देने के बाद भी जनता-दरबार का फ़ैसला नही आ रहा है|

नेताओं की रणनीति



          

मुझे क्यूँ समझ नही आती,         

             इन नेताओं की रणनीति|

मुझे तो याद भी नही रहती,            

           इन नेताओं की रणनीति|

मुझे नही पता इस बार की,

                       इन नेताओं की रणनीति|

मुझे कोई क्यूँ नही बताता,  

                   इन नेताओं की रणनीति|

क्या असल में कुछ है भी, 

                   इन नेताओं की रणनीति|


किशन सर्वप्रिय 

हर बार उलझ जाती हैं, आँखें मेरी

हर बार उलझ जाती हैं , आँखें मेरी। पता नही, क्यों? वो मुस्कुराती है पलके झुकाती है शरमाती है।। अपना पता बताये बगैर ही चली जाती है।। और फिर,...